Wednesday, November 13, 2013

Work Speaks Louder Than Words - Management Funda - N Raghuraman - 13th November 2013

काम शब्दों से बेहतर बोलता है

 मैनेजमेंट फंडा - एन. रघुरामन 


उसके पिता हमेशा कहते थे, ‘मैं अपने बच्चों से बेहद प्यार करता हूं। उन्हें दोस्त की तरह मानता हूं। उन्हें कोई सलाह नहीं देता। उन्हें उनका करिअर चुनने की पूरी आजादी है। जब कोई तकलीफ हो तो वो मेरे पास आते हैं। मेरे लिए मेरे बेटे की शिक्षा सबसे अहम है। लेकिन वह अगर क्रिकेट को प्राथमिकता देता है तो उसे उसी दिशा में बढ़ना चाहिए। अगर वह फेल हो जाता है तो उसे अपनी हार स्वीकार कर लेनी चाहिए।’ माता-पिता को इस तरह कहते हुए आम तौर पर नहीं सुना जाता। खासकर मिडिल क्लास परिवारों में। हम सब ऐसे ही परिवारों से आते हैं और जानते हैं कि हमारे यहां शिक्षा हर चीज से ऊपर है। क्रिकेट से भी। लेकिन पहले पैराग्राफ में जिस बेटे के पिता का जिक्र है, उन्होंने क्रिकेट को सिर्फ प्राथमिकता नहीं दी। बल्कि अपने बेटे को उसमें डूब जाने दिया। उनके बेटे ने कभी किताबों में समय खराब नहीं किया। ज्यादातर समय क्रिकेट प्रैक्टिस ही की। एक हफ्ते, महीने या साल नहीं। पूरे 30 साल क्रिकेट को दिए। साल 2004 की बात है। स्ट्रेट टाइम्स, सिंगापुर में काम करने वाले मेरे एक पत्रकार मित्र रोहित बृजनाथ उसका इंटरव्यू करके बाहर आए थे। 

Source: Work Speaks Louder Than Words - Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 13th November 2013
लिफ्ट के पहुंचने का इंतजार कर रहे थे कि उन्हें पीछे से आवाज सुनाई दी, ‘थंब, थंब, थंब।’ सचिन रमेश तेंडुलकर इंटरव्यू खत्म करते ही अपनी बैटिंग प्रैक्टिस पर लौट चुके थे। उनके लिए क्रिकेट इस स्तर की प्राथमिकता रहा है। लेकिन सचिन अब क्रिकेट को अलविदा कह रहे हैं। उन्होंने गुरुवार से मुंबई में शुरू हो रहे अपने 200वें टेस्ट मैच के बाद संन्यास लेने की घोषणा की है। उनमें ऐसे कई गुण हैं, जो नई पीढ़ी सीख सकती है। मुझे याद है। एक बार मैं और क्रिकेट राइटर अयाज मेमन सचिन के घर गए थे। एक घंटे की अपॉइन्टमेंट थी। सचिन ने जो वक्त दिया ठीक उतने बजे वे मौजूद थे। उन्होंने पूरे 60 मिनट हमारे साथ बिताए। इन 60 मिनट में उन्होंने न तो किसी का फोन उठाया न कोई दूसरा काम किया। जब हम सवाल पूछते तब वे चाय या पानी पीते। जिस वक्त वे जवाब देते, उन्होंने यह भी नहीं किया। इससे पता लगा कि उनके लिए समय की क्या अहमियत है।

छोटे कद या शरीर की किसी दूसरी खामी ने सचिन को कभी परेशान नहीं किया। क्रिकेट की उनकी सफेद यूनिफॉर्म उनके लिए दूसरी त्वचा की तरह है। उन पर जब-जब संदेह किया गया, सवाल उठाए गए, उन्होंने अपने बल्ले से जवाब दिया। मैंने उन्हें पहली बार धनबाद के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में हुए एक प्रदर्शनी मैच में देखा था। इस मैच में एक टीम का नेतृत्व कपिल देव कर रहे थे और दूसरी का सुनील गावसकर। बारिश की वजह से यह मैच पूरा नहीं हो पाया था। सीधे पाकिस्तान के दौरे से लौटे सचिन ने इसमें 23 रन बनाए थे। इसमें दो छक्के शामिल थे। भारत-पाकिस्तान के बीच हुई सीरीज के दौरान भी मैंने उन्हें देखा। दोनों देशों के बीच सामान्य सीरीज भी तनाव भरी होती है। फिर वह सीरीज तो लंबे समय की कड़वाहट के बाद माहौल सामान्य बनाने के मकसद से हुई थी। कैसा माहौल रहा होगा, अंदाजा लगा सकते हैं। लेकिन सचिन वहां भी तनाव में नहीं थे।

उन्हें अपनी ताकत और कमजोरी अच्छी तरह पता है। वे कभी आकर्षण पाने के लिए सिर या हाथ नहीं हिलाते। शरीर भी बेजां हिलाते-डुलाते नहीं हैं। फिजूल में चीखते हुए उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा होगा। किसी के नेतृत्व में भी खेलने के लिए वे हमेशा तैयार रहते हैं। यहां तक कि उन खिलाड़ियों की कप्तानी में भी वे खेले हैं जो क्रिकेट में व्यक्तिगत प्रदर्शन के मामले में उनसे बहुत पीछे हैं। ऐसे कप्तानों के आदेश मानने में उन्हें हिचकिचाहट नहीं हुई। और जरूरत पड़ने पर वे उन्हें सुझाव देने से भी नहीं झिझके, न पीछे हटे। क्योंकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि कप्तानी उनके ‘प्याले की चाय’ नहीं है।


फंडा यह है कि..

सचिन आज जिस मुकाम पर हैं, वहां इसलिए हैं क्योंकि वे अनुशासित हैं। जमीन से जुड़े हैं। कई लोगों से बहुत ऊंचा रुतबा होने के बावजूद दंभ उनके सिर पर चढ़कर आज भी नहीं बोल पाता। 

  
















Source: Work Speaks Louder Than Words - Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 13th November 2013

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