Friday, October 4, 2013

साहस से कभी-कभी मौत भी हार जाती है - मैनेजमेंट फंडा - एन रघुरामन - 4th October 2013

माफिन सिंड्रोम एक ऐसी आनुवंशिक बीमारी है जिससे पीड़ित लोग लंबे-दुबले होते हैं। उनके हाथ-पैर असामान्य रूप से लंबे होते हैं। ज्यादातर लोगों के दिल, फेफड़ों, आंखों, रीढ़ की हड्डी आदि में कई तरह की परेशानियां आ जाती हैं। बुधवार को इसी बीमारी से पीड़ित एक लड़की के बारे में मीडिया में खबर छपी कि किस तरह उसने इससे संघर्ष किया। लड़की का नाम रश्मिता गुहा है। वह पश्चिम बंगाल में कोलकाता के नजदीक बेलूर की रहने वाली है। वह जब 14 साल की थी तब इस बीमारी ने उसके दिल, फेंफड़े, आंख के रेटिना और रीढ़ की हड्डी पर प्रभाव डाला। उसकी बाईं आंख की रोशनी चली गई। दिल में एक अजीब सा उभार आ गया। रीढ़ की हड्डी टेढ़ी हो गई। इससे उसका शरीर मुड़ गया। डॉक्टरों को लगा कि अब शायद वह नहीं बचेगी। आशंका बेवजह नहीं थी। यह बीमारी पीड़ितों की उम्र एक तिहाई तक कम कर देती है। 
 
 Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 4th October 2013
जो लक्षण दिख रहे थे वे डॉक्टरों के लिए निराशाजनक थे। लेकिन रश्मिता की दृढ़ इच्छा शक्ति ने डॉक्टरों को भी प्रोत्साहित किया कि वे ऑपरेशन कर सकें। उन्होंने रश्मिता को बता दिया था कि नतीजे ज्यादा गंभीर हो सकते हैं। लेकिन वह बच्ची आगे बढ़ने का फैसला कर चुकी थी। वह बीमारी से कम, उसकी वजह से मिल रहे तानों से ज्यादा परेशान थी। इसकी वजह से कभी-कभी उसे अपने आप पर ही शर्म आने लगती थी। स्कूल में कई बार तो उसके साथ पढ़ने वाले बच्चे उसे कक्षा में गिनते ही नहीं थे। वे कहते थे कि जो अपने पैरों पर ठीक से खड़ा भी नहीं हो सकता उसे क्या गिनना? खैर, दो साल पहले दुर्गापुर के मिशन अस्पताल में उसके दिल का पहला ऑपरेशन हुआ। सफल रहा। लेकिन रीढ़ की हड्डी में टेढ़ापन अब भी बना हुआ था।

बेहद तकलीफदेह हालात के बावजूद उसने 10वीं कक्षा की परीक्षा में बैठने के लिए रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन कुछ दिनों के टालना जरूरी समझा। परीक्षा दी और अच्छे नंबरों से पास हुई। इस साल जुलाई में दुर्गापुर के ही मिशन अस्पताल में उसका दूसरा ऑपरेशन हुआ रीढ़ की हड्डी को सीधा करने के लिए। डॉक्टरों की टीम को पूरे 14 घंटे लगे इस काम में। उसकी रीढ़ में दो रॉड डाली गईं और 23 पेंच कसे गए। तब कहीं जाकर वह सीधी हुई। यह बहुत मुश्किल था, क्योंकि रश्मिता की रीढ़ की हड्डी तीन जगह से तिरछी थी। उसके दिल में नकली वॉल्व डले हुए थे। इसलिए उसे खून पतला करने की दवाइयां दी जा रही थीं। उसके फेफड़ों की क्षमता 50 फीसदी कम थी। ऐसे में ऑपरेशन के लिए उसको अचेत करना (एने-स्थीसिया देना) जोखिम भरा था। जरा सी गलती से उसे लकवा मार सकता था। लेकिन आखिरकार उस बच्ची ने पार पा ही लिया। ऑपरेशन के चार हफ्ते के भीतर रश्मिता ने चलना शुरू कर दिया। उसमें इतनी तेजी से सुधार देखकर मेडिकल स्टाफ भी भौंचक था।

उसके साहस से अस्पताल इस कदर प्रभावित था कि उसने उससे इंप्लांट के अलावा अन्य किसी भी चीज का कोई पैसा नहीं लिया। ऑपरेशन से पहले रश्मिता ने अस्पताल की ओर से दिए गए कागजात पर खुद तो दस्तखत किए ही अपने माता-पिता को भी ऐसा करने के लिए मजबूर किया, क्योंकि वह जीना चाहती थी। अपनी कक्षा के हर छात्र को बता देना चाहती थी कि वे गलत हैं जो उससे हमेशा कहते थे कि वह अपने दोनों पैरों पर कभी खड़ी नहीं हो सकती। आज वह अपने पैरों पर सीधी रीढ़ के साथ खड़ी होती है। मिलने के लिए आए हर पत्रकार से मुस्कुराकर मिलती है। उनसे हाथ मिलाती है। अखबारों ने उसकी कहानी को पहले पेज पर छापा। उसने मीडिया से कहा है, ‘मुझे जिंदगी से प्यार है। मैं जिंदगी की हर चीज से प्यार करती हूं।

फंडा यह है कि..

अगर दृढ़ इच्छा शक्ति है तो आप हर हालात का सामना कर सकते हैं। यहां तक कि मौत के मुंह से भी वापस आ सकते हैं।














Source: Management Funda By N Raghuraman - Dainik Bhaskar 4th October 2013

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